Thursday, September 12, 2013

उसे माँ की तरह रहना बहुत ही खूब आता है

सुबह की शुरुआत..एक ताज़ा नज़्म दुनिया के सबसे खूबसूरत रिश्ते के नाम..बहुत कम लिखा है..लेकिन जो भी है..पढ़िए..

ज़रा देखो इधर आकर, ये कैसा शोर आता है
कि बढ़ जाती है धड़कन, कौन ऐसे मुस्कुराता है

बहुत दिन बाद आता हूँ मैं अपने घर के आँगन में
मुझे जब माँ नज़र आती है, बचपन दौड़ आता है

मेरे घर में कदम रखते उसे इक फ़िक्र होती है
औ' मेरी माँ का बेलन बस तुरत रोटी बनाता है 

वो चूल्हे की तपन भी माँ को ठण्डी ओस लगती है
कि जब-जब भी निवाला एक मेरे मुँह में जाता है

वो फिर-फिर पूछती है वाक़ये सारे बरस भर के
कि माँ को जान कर भी सब कभी ना चैन आता है

वो अपने काम सारे छोड़ कर आ बैठती है फिर
उसे माँ की तरह रहना बहुत ही खूब आता है

हुए जब रात के, आकाश में चन्दा नज़र आये
उतर कर हाथ में माँ के वो थपकी दे सुलाता है

मैं दिन छुट्टी के गिन लूँ तो उसे अच्छा नहीं लगता
वो माँ है न! उसे बेटे का केवल साथ भाता है
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Written : 0802 Hours, Thursday, September 12, 2013




मेरी आवाज़ में सुनें यहाँ...
 

Sunday, September 01, 2013

आओ..!

अन्धा है कानून, न इसको दीखे
लम्बे हाथों से भी किसको खींचे?

संविधान अविधान हुआ जाता है!

भारत का निर्माण हुआ जाता है!


Courtesy: Google

आयुर्बन्धन की यह विषम कड़ी है
जघन्य अपराधों को छूट बड़ी है

भारत की बेटियाँ सिसकती जायें

हम क्यों हाथ धरे बैठे रह जायें?

निज-कर्तव्यों की कर लें अब रक्षा

इतिहासों ने नहीं किसी को बख्शा

बदलें गीता लोकतन्त्र की, आओ!

सीता को सुपुनीता करने आओ!

~चेतस

०५:२८ अपराह्न, रविवार, ०१ सितम्बर २०१३
राँची, झारखण्ड

Tuesday, August 13, 2013

भारत

भारत! संज्ञा नाम है
कर्ता है, निष्काम है
कर्म भी, क्रिया भी, तु ही
रमने वाला राम है

तेरा भाव सुगीत है
कारक- परमपुनीत है
जीवन की आशा लिए
गौरवमयी अतीत है

तेरा ही अभिमान हो
तेरा सुयश बखान हो
एक यही अभियान हो
तुझमें रत मन-प्राण हों

देश! तुझे वरदान है
दर्शन का सुज्ञान है
ईश्वर का, महिमामयी 
कण-कण का शुभगान है

भाषा-बन्ध अटूट है
प्रकृति-कोष अकूत है
विचारज्ञ! तुझमें स्वयं
भविष्य भी आहूत है 

तू नर का स्वाकार है
उपनिषदों का सार है
निराकार बहता यहाँ
होकर नीराकार है

देश-प्रेम ही धर्म है
सबसे गहरा मर्म है
इसमें रक्खूँ आस्था
यही सुपूजित कर्म है
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Written : 2141 Hours, Tuesday, August 13, 2013

Tuesday, August 06, 2013

कुछ प्रश्न -

कुछ समय पूर्व फेसबुक पर इस प्रसंग को उठाया था। आज एक चर्चा के दौरान फिर एक वैसा ही अनुभव हुआ तो फेसबुक की उस सामग्री को यहाँ भी पोस्ट कर रहा हूँ। 

हम अक्सर तब गलती कर बैठते हैं जब हम आस्था को केवल भक्ति से जोड़ते हैं। यहीं से मेधा बाधित होने लगती है। तुच्छ स्वार्थों की तुष्टि के निमित्त नूतन दूषित प्रमेयों का निगमन होने लगता है। आस्था तो ज्ञान के लिए भी सामान रूप से आवश्यक है। मनीषा पर भी उसका समान अधिकार है। फिर यह अनर्गल प्रवंचना क्यों? जन-सामान्य की निश्छल धार्मिक भावना का शोषण क्यों? क्या अपनी महत्ता स्थापित करने के लिए? या सामूहिक मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में अपनी दक्षता सिद्ध करने के लिए? लेकिन, इन सबके साथ एक और प्रश्न अतीव महत्वपूर्ण है। सम्मानित व्यास-पीठ को गौरव-च्युत करने वालों का निजी आर्थिक लाभ की पूर्ति के अतिरिक्त और क्या उद्देश्य होता है? और वह जो भी होता है, हम लोग उसे समझ क्यों नहीं पाते हैं?

आस्था के नाम की माला जपते-जपते गीता के तार्किक ज्ञान को प्रदूषित करना, ग्रन्थों की प्रतीकात्मकता को विश्लेषित करते हुए न समझाना, इतिहास को उसके मौलिक स्वरूप में न निरूपित करना वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के विरूद्ध निजी लोभ और लाभ के संरक्षण के हित में आजकल के अधिकतर तथाकथित धर्मोपदेष्टाओं का षड्यंत्र ही तो है। बस इनके जयकारे गूँजें, जनता मरती है तो मरा करे। ये "गुरु जी" कहलाते रहें

कहा जाता है न - पहले गोरे अंग्रेज थे, अब काले अंग्रेज हैं। सही बात है। लेकिन ये काले भी दो प्रकार के हैं - एक तो सुपरिचित राजनैतिक और दूसरे स्वप्रचारित धार्मिक कबीर की एक पंक्ति भिन्न सन्दर्भ के साथ यहाँ भी बैठाई जा सकती है - "इन दोउन राह न पायी" एक पंचवर्षीय योजना बनाते हैं, दूसरे चातुर्मास की योजना बनाते हैं। रही-सही कसर हम स्तुतिवादी लोग अपने हाथ उठा कर या इन्हें साष्टांग प्रणाम करके बराबर कर देते हैं। यह केवल मेरा-आपका नहीं, सम्पूर्ण उपमहाद्वीप का रोग है और इलाज किसी ईश्वर के पास नहीं, हमारे पास ही है लेकिन पहले यह तो पता लगे कि हम अपनी बुद्धि कहाँ गिरवी रखकर भूल गए हैं

"राम" यदि बुद्धि-प्रदेश में रमण करने में अक्षम है, तो फिर वह राम ही कहाँ रहा? धर्म यदि बुद्धि को ही न धारण कर सके, उससे दूर भागे तो वह धर्म ही कैसे रहा? (यहाँ "राम" से तात्पर्य उसके शाब्दिक एवं पारिभाषिक अर्थ से है, न कि अवतारी पुरुष से। अतः इसी अर्थ में ग्रहण किया जाये।)


यह शास्त्रार्थों का देश रहा है। जो तर्क श्रेष्ठ हो उसी में आस्था स्थापित होती है। यही नियम है। आस्था से तर्क का प्रायोगिक निष्कासन उसे पंगु बना देता है। तर्क-विहीन आस्था बैसाखी तो बन सकती है किन्तु सुदृढ़ पाँव श्रेष्ठतम बैसाखी की अपेक्षा भी सदैव श्रेष्ठतर ही होते हैं

"यद्धारयति तद्धर्मः" - सत्य है। किन्तु बुद्धिहीन समाज को कैसा धर्म धारण कर सकता है? क्या इसकी कल्पना मात्र मानस को झिंझोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं है? सरल से तथ्य हैं। इन्हें भी समझना क्यों मुश्किल हुआ है??
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