Friday, August 22, 2014

हाँ, उसी में ही..

ग़रीबों की जो बस्ती है, उसी में, हाँ, उसी में ही
ज़माना पोंछता है आस्तीनें, हाँ, उसी में ही

सितमगर को सितम ढाने में कुछ ऐसा मज़ा आया
कि आकर फिर खड़ा मेरी गली में, हाँ, उसी में ही

है कुदरत की अजब नेमत, लुटाने से ही बढ़ती है
कि सब दौलत छिपी है इक हँसी में, हाँ, उसी में ही

वो है अच्छी मगर डर है उसे ऊँची इमारत का
शराफ़त है सिमटती बेबसी में, हाँ, उसी में ही

तुम्हारा सोचना मुझको बड़ा माकूल लगता है-
'तख़ल्लुस' लिख रहा है ख़ुदकुशी में, हाँ, उसी में ही
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0602 Hours, Friday, August 22, 2014

Sunday, August 03, 2014

ये दोस्ती भी इश्क़ से कम तो नहीं रही

ये जो  भी चंद  शेर लिखे गए हैं, इनमें शायद साहित्य जैसा कुछ नहीं हो...मगर सच्चाई पूरी है..कथ्य को पूरी शिद्दत से जिया है, जाना है, महसूस किया है... मेरे ज़हन में उतर कर पढ़ियेगा तो शायद आप ख़ुद भी कुछ पुरानी यादों में गोते लगा आइयेगा... :)
 
रिश्तों में सुबह की हवा सी ताज़गी रही
ये दोस्ती भी इश्क़ से कम तो नहीं रही

दुनिया में चकाचौंध है रफ़्तार हर तरफ़
हम जब मिले, दिलों में वही सादगी रही

इक-दूसरे से जो कहा, किया है हमेशा
जो बात तब सही थी, अभी भी सही रही

जिस वक़्त से हम साथ हैं, तब से यही लगा-
मन में है उजाला, न कहीं तीरगी रही

बिन एक-दूसरे के न पूरे हुए हैं हम
तक़रार हुई खूब, न नाराज़गी रही

विश्वास एक हौंसला देता है साथ का
हम दूर हैं मगर वही पाकीज़गी रही

हर दौर में लिया है ज़माने ने इम्तिहान
जो दोस्ती की शै थी, वहीँ की वहीँ रही
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0416 Hours, Sunday, August 03, 2014

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Saturday, August 02, 2014

पहली ही झलक ने...

सबको ही मुहब्बत ने तो मजबूर किया है
तुझको न किया हो, मुझे ज़रूर किया है

उस शाम को दिखी तेरी पहली ही झलक ने
आँखों को मेरी तब से पुरसुरूर किया है

अपलक निहारता हूँ मैं लेटा हुआ छत को
इस काम ने मुझको बड़ा मसरूफ़ किया है

सब यार मेरे रश्क भी करने लगे हैं अब
अपनी पसंद ने मुझे मगरूर किया है

थोड़ा सा दिन तो दे, ज़रा सी रात भी दे दे
अब तक न तुझे चैन से महसूस किया है

ख़्वाबों की मस्तियों का तो सुना भी था मगर
उम्मीद की मस्ती ने भी मशगूल किया है

मिलने की एक बार मुझे और सज़ा दे
लिखने का तुझे कलम ने कुसूर किया है
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1752 Hours, Friday, August 01, 2014

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