Saturday, May 30, 2015

मैं तेरी माँग का सिन्दूर हो जाऊँ ...

तेरी दुनिया का हर दस्तूर हो जाऊँ
मैं तेरी माँग का सिन्दूर हो जाऊँ

मेरी आँखें रही हैं मुन्तज़िर कब से
तेरी आँखों का कब मैं नूर हो जाऊँ

तेरी चाहत में बदनामी बहुत पाई
चली आ, अब ज़रा मशहूर हो जाऊँ

तेरे आने से घर में रोशनी कुछ हो
तेरे आने से कुछ मगरूर हो जाऊँ

'तख़ल्लुस' को कभी कुछ शाइरी आए
सियाही-ओ-सफ़े से दूर हो जाऊँ
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०१:२९ पूर्वाह्न, १३ नवम्बर २०१४

Wednesday, May 27, 2015

तुम्हारी आँखों में ...

पिछले साल लिखे इस गीत को पोस्ट नहीं करने का सोचा था। मगर एक मित्र के आग्रह पर आज कर दिया... :)


बहता सरल समीर तुम्हारी आँखों में
बनती एक नज़ीर तुम्हारी आँखों में

धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों खुलती जाती हैं
सुबह की किरणों सी रँगती जाती हैं
सागर सी तस्वीर तुम्हारी आँखों में

दुनिया भर की सारी दौलत फ़ानी है
बस इसकी खातिर जीना नादानी है
मेरी सब जागीर तुम्हारी आँखों में

दीवाली के जगमग दीपों से ज़्यादा
होली के सारे रंगों से भी ज़्यादा
त्यौहारी तासीर तुम्हारी आँखों में

जो भी देखूँ, दिखकर भी अनदेखा है
अनजाने में खिंचती कोई रेखा है
अम्बर सी गम्भीर तुम्हारी आँखों में

माथे पर भी नहीं और न हाथों में
नहीं किसी पत्री की लम्बी बाँचों में
है मेरी तकदीर तुम्हारी आँखों में

पिघल-पिघल कर यादें जब बहना चाहें
पलकों को धोकर ठहरे रहना चाहें
नीर बना सब क्षीर तुम्हारी आँखों में
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०९:४१ अपराह्न, २२ अक्टूबर २०१४


Friday, May 22, 2015

हाँ, देखिये ...

बिहार के जनता परिवार महाठगबन्धन के ताज़ा राजनैतिक हालात पर कुछ लिखा गया...

क्या पुराना क्या नवेला देखिये
नीम पर चढ़ता करेला देखिये

रंग पहले ही नहीं था दाल में
स्वाद भी अब है कसैला देखिये

थी जहाँ खेती गुलाबों की कभी
आज उसका रूप मैला देखिये

कूक भरती थी कभी कोयल जहाँ
तीतरों का आज रेला देखिये

जो "समाजों" के मिले "वादी" यहाँ
देखिये झोला कि थैला देखिये

आइये, आ जाइए अब आप भी
बैठिये रंगीन मेला देखिये

खाइए चारा, जुगाली कीजिये
और पटना का तबेला देखिये
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०७:४६ अपराह्न, मंगलवार, २८ अप्रैल २०१५

Monday, May 18, 2015

अकेली ..

कई दिनों बाद आज बैठे-बैठे ग़ज़ल हो गयी...अरसे बाद वियोग शृंगार लिखा गया..देखें ... :)

"कच्ची दुपहरियों में जामुन के नीचे
वह बाट जोहती घूँघट पट को खींचे

आँसू की खेती उग आती नयनों में
वह साँझ ढले गोधूलि-कणों को सींचे

चाँदनी रात में बाल पके हैं उसके
पर ड्योढ़ी की लौ अपनी चमक उलीचे

प्रिय की आहट पाने को आतुर होकर
मन-महल बिछाती हर दिन लाल गलीचे

हर रात मगर सूनी-सूनी कटती है
फिर भोर चली आई हथेलियाँ भींचे"
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०३:५२ अपराह्न, १८ मई २०१५

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